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श्री बांके बिहारी जी महाराज

और

स्वामी हरिदास जी महाराज का इतिहास

अभी तीनों भाइयों ने योवन की देहरी पर पैर रखा ही था कि उनका विवाह हो गया ! तीनो भाई ग्रहस्थ जीवन में प्रविष्ट हो गए ! परंतु श्री हरिदास जी के लिए जैसे कुछ हुआ ही नहीं ! वे अभी भी पेह्ले की तरह ही अपनी साधना में लीन रहे ! इस प्रकार एक लंबा समय व्यतीत हो गया ! उधर अन्य दोनों भाइयों ने सद्गृहस्थ की तरह अपना जीवन व्यतीत किया और उनकी संताने माताओं के आंचलों की छाया से निकलके गांव के खेत खलियान तक खेलने लगी ! श्री जगन्नाथ जी के 3 पुत्र थे श्री गोपीनाथ जी, श्री मेघश्याम जी और श्री मुरारीदास जी तथा श्री गोविंद जी के दो पुत्र थे श्री विट्ठल विपुल जी एवं श्री कृष्ण प्रसाद जी ! स्वामी हरिदास जी की आसक्ति तो अपने श्यामा कुंज बिहारी के अतिरिक्त किसी में नहीं थी किंतु अपने भतीजों के प्रति उनका स्नेह अवश्य था क्योंकि वह सब भी संस्कारी थे ! एवं श्री हरि के प्रति उनकी निष्ठा थी और श्री हरिदास जी के प्रति भी वे लोग समर्पित थे ! स्वामी हरिदास जी चाहते थे कि संसार की मिथ्या मैं ना उलझकर श्रीहरि के सच्चे प्रेम रस रंग की ओर सबका ध्यान आकृष्ट रहे ! इसलिए उन्हें वे सदा ऐसा ही संदेश उपदेश देते रहते थे ! श्री आशुधीरजी महाराज ने न केवल अपने पुत्रों को बल्कि अपने पोत्रो को भी यज्ञोपवित संस्कार के समय गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, किंतु श्री हरिदास जी को उन्होंने वैष्णवी दीक्षा भी दी थी ! वैष्णवी दीक्षा के समय उन्होंने संसार की नश्वरता और कष्टों का एवम प्रभु प्रेम के अविन्श्वर असीम आनंद का जो परिचय दिया था, वह स्वामी हरिदास जी के भीतर संपूर्ण रूप से अंकित था !

हरिदास जी की भक्ति भावना का रंग जितना-जितना गहरा होता जाता था उतनी ही श्री आशुधीरजी महाराज जी के हृदय की आनंद धारा और गहरी होती जाती थी ! किंतु मां गंगा देवी को यह वैराग्य वृत्ति उतनी नहीं रुचि थी जब जब वे हरिदास जी की पत्नी का उदास देखती तब तक एक विचित्र अंधेरा उनके सामने उमरने लगता था ! एक दिन उन्होंने बड़े प्यार से हरिदास जी की पत्नी जिनका की नाम हरिमति था से कहा बेटी

“तेरी पीड़ा मैं समझती हूं पर क्या करूं कुछ कर नहीं सकती हूं ? मैं इस डर से हरिदास से कुछ भी नहीं कह सकती कि कहीं कुछ कहासुनी हो गई तो वह कहीं घर छोड़कर अन्यत्र ना चला जाए” हरिमति जी ने गंभीर भाव से कहा “माताजी मुझे वास्तव में कोई पीड़ा नहीं है जिस का अनुमान आप लगा रही हैं मैं तो कभी-कभी यह सोचकर अधीर हो जाती हूं इन्होने मुझे अपने मार्ग की बाधा समझ लिया है जबकि मैं हर प्रकार से इनके मार्ग पर आगे बढ़ने में सहयोग करने का संकल्प लेकर बैठी हूं” कभी यह विचार तुमने अपने पति के सामने रखें मैया ने पूछा

हरिमति बोली “प्रकट तो तब करु जब मौका मिले वह तो घर में आते ही किसी दूसरे लोक में चले जाते हैं मेरी हिम्मत ही नहीं होती कि कुछ कहूं”

गंगा देवी बोली “आज तुम कोशिश करके देखना ऐसे जिंदगी कैसे कटेगी” रात्रि का समय था चारों ओर चंद्रमा की उज्जवल रोशनी में नहाई हुई प्रकृति निस्तब्ध थी ! उसी समय स्वामी जी अपने कक्ष में साधना में लीन थे ! तभी हल्की सी पदचाप के साथ किवाड़ खोल कर किसी के भीतर आने की आहट हुई ! स्वामी जी ने आंखें खोली तो उन्हें पास जलते दीपक के प्रकाश में लाज में लिपटी एक परम रूप सौंदर्य मति युवती के दर्शन हुए स्वामी जी ने पूछा “इतनी रात व्यतीत हो जाने पर भी आप सोए नहीं?” “रात्रि की यह शांत पल तो सांसारिक प्राणियों के विश्राम के हेतु होते हैं” युवती ने उत्तर दिया “हे प्राणनाथ मैं आपकी सहचरी हूं अनुगामिनी हूं आप जागे और मैं सो जाऊ इसे मैं अपने लिए उचित नहीं समझती”

“तो तुम भी अपने कक्ष में जाकर श्री हरि की आराधना करो श्री हरी का भजन ही मानव जीवन का परमार्थ है” स्वामी जी ने समझाया !

हरीमति ने बोला “आपके जीवन की परम मह्त्ता श्री हरि भजन में ही है किंतु मेरे जीवन की महत्व्ता तो आपके श्री चरणों की सेवा में है आप जिस किसी भी लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे मैं भी उसी की ओर चलती हुई सदा आपकी सेवा में सनद रहूंगी !! स्त्री के लिए एक पति से बड़ा कोई परमेश्वर नहीं है !! मैं आपको वचन देती हूं कि मैं सदा आपके पीछे रहूंगी ! सदा आपका मार्ग-प्रशस्त करूंगी !  कभी आपके पथ की बाधा नहीं बनूंगी !!”

स्वामी जी एक क्षण सोचकर भोले “इसका क्या प्रमाण है?”

इतना सुनते ही श्रीमती जी के मुख-मंडल पर एक अद्भुत तेज़ दीप उठा और उन्होंने वहां जलते दीपक की ओर हाथ जोड़कर कहा

“हे अग्निदेव स्वामी प्रमाण मांग रहे हैं मेरी कुछ सहायता करो”

कहते हैं कि उस समय “दीपक की लौ से एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई और उसने हरिमति की सुहाग-सज्जित देह को अपने में समेटा और हरिदास जी के चरणों में विलीन हो गई ! मणि को फणी से अलग करना संभव है किंतु सती को पति से दूर करना विधाता के लिए भी संभव नहीं है !!

इस अकल्पित-अचिंत्य घटना से हरिदास जी ठगे से रहे गये ! उनके मुंह से सहसा निकला “विजय सती तेरी विजय ! तू पीछे चलने की बात कहती कहती आगे निकल गई !

कुछ देर बाद परिवार के बाकी सब सदस्य भी वहां आ गए ! “क्या हुआ ? क्या हुआ ?”

उनके पूछने पर स्वामी जी ने सबको सारा वृत्तांत सच-सच बता दिया ! किंतु आशुधीरजी महाराज और गंगा देवी के अतिरिक्त किसी ने भी इस अनहोनी विलक्षण घटना पर विश्वास नहीं किया ! उन्होंने अनुमान लगा लिया कि श्रीमती ने दोनों हाथों में हाथ भर-भरकर जो लाख की चूड़ियां पहन रखी थी ! उनसे असावधानीवश दीपक की लौ छू जाने के कारण ही संभवत: यह हादसा हुआ और तभी से गोस्वमी परिवार की महिलाओं के लिए लाख की चूड़ियां पहनना निशेद्ध् कर दिया गय ! आज भी गोस्वामी समाज की वधू में विवाह महोत्सव पर पहने जाने वाली लाख की चूड़ियां धारण नहीं करती है ! वर्तमान में हरीमति की समाधि “विजय सती” की समाधि के नाम से वृंदावन में विद्यापीठ चौराहे पर बनी हुई है ! आज भी मुंडन विवाह आदि पवित्र संस्कार उत्सव पर गोस्वामी समाज की महिलाएं गीत-वाध्यो के साथ वहां जाती हैं ! और विशेष अर्चना पूजा करती हैं !!

परम सती शिरोमणि हरीमति के स्वरुप में समाहित हो कर न केवल उनकी बाहय-यात्रा के मार्ग को प्रशस्त कर दिया था अपितु उनकी अंतर्यात्रा को भी सुगम बना दिया था ! पत्नी के अंतर्हित होने के उपरांत वे अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए विशेष उतावले हो रहे थे कि एक दिन सुयोग पाकर उन्होंने अपने पिताजी के पास जाकर विनयपूर्वक कहा –

“आप मेरे पिता ही नहीं गुरु भी हैं जैसे अनेक-अनेक अन्य साधकों को आप जगत की आपात रमणीय विषय-भोगों के भ्रमजाल से मुक्त करके श्री हरि की ओर अग्रसर करते रहते हैं उसी प्रकार आप मुझे भी सांसारिक विस्तार की विनश्वर स्वरूप समझा कर इस से बचते हुए श्रीहरि की ओर जाने का उपदेश दीजिए !”

“आज उस पथ पर अग्रसर होने का अवसर आ गया है वृंदावन जी मुझे बुला रहे हैं मैं संसार के कटीले बंधनों से मुक्त होकर उस चिरमयी प्रेम के पास में बंधने जा रहा हूं जिसके मधुर वेनु-निनाद पर कोटि-कोटि ब्रह्मान्ड् आनंदामृत-रस में डूब कर निरंतर थिरकते रहते हैं !

मुझे मेरे गंतव्य पथ पर जाने की अनुमति देकर अनुग्रहित करने की कृपा करें !!”

पुत्र की बात सुनकर आशुधीरजी महाराज जी का हृदय आनंद से खिल उठा उनका रोम-रोम खुशी से नाच उठा उन्होंने आगे बढ़कर हरिदास को छाती से लगा दिया परम प्रसन्न होते हुए कहा

“जाओ अनुमति है कोटि-कोटि शुभकामनाओं के साथ अनुमति है अनंत अनंत मंगल आकांक्षाओं के साथ अनुमति है जाओ अपने आप को पहचानो अपने आराध्य के स्वरूप को पहचानो और प्रेम कथा आनंद रस के उस सनातन स्वरुप् को देखो जिसका न आदि है और न अन्त !! विश्व का जो कुछ भी आनंद है उसमें उसी प्रेम अमृत की मधुरिमा है जाओ तुम्हारा कल्याण हो !!”

हरिदास जी माता पिता की चरण धूलि मस्तक पर रखकर जैसे ही चलने लगे तो क्या देखते हैं कि न केवल उनके परिवार के सभी सदस्य अपितु गांव के अधिकांश लोग भी उनके साथ-साथ जाने को तैयार खड़े हैं ! हरिदास जी को हंसी आ गई बोले भाई मैं वृंदावन जा रहा हूं, देखा है तुम लोगों ने वृंदावन ! वहां घोर जंगल है एक दूसरे में उलझे खड़े ऊंचे-ऊंचे वृक्ष यमुना के कटे-फटे निरीक्षण हिंसक जानवरों का जमावड़ा और कुश-कंटकों भरी धरती ! न वाह रहने बसने की कोई जगह है ना खाने पीने का कोई सिलसिला ! आप सब थोड़े दिन और यही रहे जैसे ही वहां कुछ सुविधा हो जाएगी तब तुम सब भी वहां आ सकोगे ! हरिदास जी की वाणी में कुछ ऐसा जादू था कि जिसे सुनकर सब लोग अपनी-अपनी जगह खड़े रह गए किंतु गोविंद जी का बड़ा पुत्र श्री विट्टलविपुल जिस पर हरिदास जी का अत्यधिक स्नेह था मना करने पर भी उनके पीछे-पीछे चल दिया हरिदास जी ने उनसे पूछा तुम कहां चल दिए विट्ठल जी बोले

“आपके हाथ पैर कान आंख आधी अंग भी तो आपके साथ चल रहे हैं जैसे यह सब आपके हैं वैसे ही मैं आपका अंग हू अंग से बिछड़कर अंग कैसे रह सकता है”

सुनकर स्वामी जी की आंखों में अश्रु धारा बह चली उन्होंने बालक विट्ठल को गले से लगाते हुए कहा तुम मेरे अंग हो तो जरूर मेरे साथ चलो !

इसके बाद स्वामी जी ने श्री गोविंद जी को अपने पास बुलाया और उनसे बोले देखो गोविंद भैया सब की देख रेख करने वाला कोई दूसरा ही है किंतु लोक व्यवहार की दृष्टि से मैं कह रहा हूं मेरे पीछे पिताजी की देखभाल और ठाकुर राधा माधव की अर्चना पूजा का दायित्व तुम पर है जो स्नेह और महत्त्व तुम्हारा विट्ठल के प्रति है उसी इसने और महत्त्व के साथ तुम माताजी और पिताजी की सेवा में संगलन रहना अच्छा तो हम चलते हैं !!

उनको जाता देखकर वहां खड़े लोगों में से उदास हुए कुछ आंसू बहाए कुछ सिस्के और कुछ पाषाण प्रतिमा बने गुमसुम खड़े रहे ! इसी बीच स्वामी हरिदास जी ने विट्ठल का हाथ पकड़कर वृंदावन की ओर जाने वाली डगर पर कदम बढ़ाते हुए जल्दी-जल्दी चल पड़े !

25 वर्ष की अवस्था में संवत 1560 में यमुना जी को पार करके उनके किनारे पर ही वहां साधना-रत हो गए जहां आज निधिवन राज मंदिर है !

स्वामी जी के वृन्दावन पहुचते ही वृंदावन का दिव्य स्वरूप प्रकट हो गया ! यमुना जी के उज्जवल नीलाभ में रंग-बिरंगे कमल खिल उठे ! विविध प्रकार के जलचर उसमें कलरव करते हुए विचरण करने लगे हरी-भरी वृक्षवली से

लिपट कर भांति-भांति की वल्लरियां सुंदर-सुखद कुंज-निकुंज की रचना करने लगी ! कोकिल-केकी चकोर-आदि विहंद– वृन्द आनंद में झूमते हुए अद्भुत गीत-संगीत की सृष्टि करने लगी ! इसी मधुरम मनोरम वातावरण में स्वामी हरिदास जी जब तानपुरा लेकर अपने संगीत की अलौकिक स्वर लहरियां बिखेरते थे तब संपूर्ण वृंदावन धड़कने लगता था ! कुंजों के अभ्यंतर से निकलकर नुपुरों की रुनझुन बिट्ठल जी के किशोर ह्रदय को कोतूहल से भर देती ! वह सोचने लगे कि यह तानपुरा की झंकार तो है नहीं फिर इतनी अतिशय कोमल नूपुर ध्वनि प्रभाव का उद्गम कहां से है अपनी जिज्ञासा भरी आंखें से श्री स्वामी दास जी के नेत्रों में तैरती भाव-भंगिमाओं के आकर्षण में डूब कर रह जाते ! एक दो बार उन्होंने स्वामी जी से इस विषय में जिज्ञासा भी की तो उन्होंने यही उत्तर दिया कि समय आने पर सब समझ जाओगे स्वामी जी संगीत के माध्यम से अपने प्राण आराध्य श्यामा कुंज बिहारी को रस बिलसाते हैं - यह बात तब उनकी समझ में नहीं आई थी किंतु इतना तो वे विश्वासपूर्वक समझ गए थे कि स्वामी जी इस सृष्टि की वस्तु नहीं है कोई अलौकिक विभूति है !

गोविंद जी और उनकी पत्नी ने सोचा था कि बालक विट्ठल घूमने-फिरने के कोतूहल से स्वामी जी के साथ चला गया है, कुछ दिन में स्वत: ही परिवार में लौट आएगा ! किंतु कई वर्ष बीतने के बाद भी जब वह वापस नहीं आया तो गोविंद जी पुत्र वात्सल्य में व्याकुल होकर उसकी खोज खबर करने के लिए वृंदावन जाने को व्याकुल हुए ! किंतु स्वामी आशुधीर जी ने उन्हें रोक दिया बोले “हरिदास ने तुम्हें ठाकुर श्री राधा माधव की सेवा का भार कुछ सोचकर ही सौपा है तुम हरिदास को नहीं पहचानते वह एक अवतारी विभूति है किसी विशेष उद्देश्य से ही इस धाम पर उनका आविर्भाव हुआ है अर्थात जन्म हुआ है” तुम देख नहीं रहे हो कि संसार के काम क्रोध-लोभ-मोह-ईर्ष्या आदि विकार जो सभी मनुष्य में सामान्य रूप से सहज दिखाई देते हैं उनका लेश भी हरिदास में नहीं है यदि कुशल-मंगल खबर लाने का प्रश्न है तो मैं जगन्नाथ को भेज देता हूं !”

स्वामी आशुधीर जी श्रीहरि के प्रति अपनी अविचल अनन्य भक्ति के बल से संभवत: पहले से ही जानते थे कि इस परिवार का कौन सा सदस्य किस उद्देश्य से जन्मा है !

उन्होंने जगन्नाथ जी को वृंदावन भेज दिया ! नौका से श्री यमुना जी को पार करके उन्होंने जैसे ही वृंदावन की भूमि पर पैर रखा तो उन्हें लगा जैसे इस पवित्र वन से तो वह पूर्व परिचित हैं ! जब से स्वामी हरिदास जी वृंदावन आए थे तब से कितनी ही बार उन्होंने स्वप्न में इस वन के दर्शन किए थे और थोड़ा आगे बढ़े एक ललित-ललाम निकुंज के द्वार पर बैठकर तानपुरा बजाते हुए स्वमी हरिदास जी दिखाई दिए पास ही विपुल जी भी उपस्थित थे ! दोनों के शरीर यमुना जी की रज से पुते हुये थे ! और दोनों किसी अलक्षित आकर्षण में खोए हुए थे उन्हें किसी के आने जाने का ध्यान ही नहीं था ! जगन्नाथ जी भी उनके पास आकर बैठ गए ! और संगीत का आनंद लेते रहे ! शीतल पवन, पुष्पो की भीनी-भीनी खुशबू कलित कलरव उन्हे लगा कि प्रकृति का यह संपूर्ण वैभव भी स्वामी जी के संगीत का ही अंग है और किसी अव्यक्त को व्यक्त करने की पूर्ण पीठ का है !

कुछ समय बाद स्वामी जी की चेतना जब लोक में लौटी तो उन्होंने जगन्नाथ जी को स्नेह भरी दृष्टि से निहारते हुए कहा स्थाई रूप से वृंदावन वास के लिए कब आ रहे हो उत्तर में जगन्नाथ जी उनके पैरों में लिपट गए बोले गुरुदेव अब मुझे जाने की ना कहें मैं अब तक किसी अज्ञात प्यास से तड़पता हुआ उसकी तृप्ति के लिए तपते रेत से भरे रेगिस्तान में भागता रहा हूं ! बहुत थकान और जलन के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता ! वृंदावन की इन हरी-भरी कुंज-निकुंज के मध्य से आपके चरणों की धूल का स्पर्श पाकर आज मेरे प्यासे प्राणों ने अमृत-सिंधु का किनारा देखा है ! आशीर्वाद दें कि अब मैं आगे बढ़कर इस आनंद अमृतरस सिंधु में आमूलचूल निमग्न् हो जाऊ !”

स्वामी जी ने जगन्नाथ को उठाकर हृदय से लगाया आनंद प्रभाव से दोनों की आंखें आसुओं से भर आई ! स्वामी जी ने कहा- “जगन्नाथ-सारे प्राणियों की एकमात्र गति यह श्री हरि का प्रेम-समुद्र ही है ! मैं चाहता हूं कि ये सब प्राणी जल्दी से जल्दी इस वृंदावन में आ जाएं ताकि यह अनंत काल तक विभिन्न योनियों में चक्कर काटने से बच सकें !” इसी बीच विट्ठल विपुल जी अब तक शांत भाव से बैठे सब कुछ सुन रहे थे अचानक बोल उठे “पर आपकी कृपा के बिना इस भीषण संसार सागर को पार करके कोई इस पार कैसे आ सकता है”

स्वामी जी के होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट फैल गई उन्होंने कहा “जैसे तुम और जगन्नाथ आए हो वैसे ही सब भी आ जाएंगे” ! धीरे-धीरे श्री हरि की प्रेरणा पाकर स्वामी हरिदास जी की कृपा का तंबू फैलता गया और बहुत से संस्कारी व्यक्ति इसके नीचे आकर संसार की तपन से मुक्त होने लगे ! उन दिनों वृंदावन में ना तो कोई भवन होते थे ना ही सड़के होती थी ! बड़े-बड़े मंदिर देवालयों का निर्माण भी नहीं हुआ था ! यह एक गहन वन था ! सब तरफ केवल वृक्ष और रज रानी होती थी ! स्वामी जी के यहां आगमन के साथ ही साथ निधिवन की प्रछन्न् वनश्री की कलित कामिनीय शोभा समग्र भाव से अभिव्यक्त हो उठी थी ! इस जन-कोलाहल-विहिन प्रदेश में थिरक्ता हुआ स्वामी जी का संगीत किसके लिए समर्पित है, यह प्रश्न श्री विट्ठल विपुल जी के भीतर निरंतर स्पंदन करता रहता था ! इसी प्रश्न के साथ एक प्रश्न और जुड़ गया कि स्वामी जी जिस निकुंज के द्वार (श्री निधिवन का द्वार) पर बैठकर संगीत की रागिनी छेड़ते हैं उसके भीतर कौन विद्यमान है ? जिससे वे एकांत में बातें भी करते रहते हैं ? विट्ठल विपुल जी ने अनेक बार उनके भीतर झांक कर देखा था किंतु उन्हें अंधेरे के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई दिया था ! एक दिन तो उसमें घूम कर भी देख आए थे ! इस संबंध में उन्होंने जगन्नाथ जी से भी पूछा था, तो उन्होंने कह दिया था स्वामी जी की लीला स्वामी जी ही जाने ! देख नहीं रहे हो यहां के तो सारे रंग-ढंग ही निराले हैं ! तुमने ही तो उस दिन कहा था कि कुछ खाने पीने को सामने होता है तभी यहां भूख प्यास लगती है अन्यथा तो भूख-प्यास की अनुभूति यहां होती ही नहीं ! मुझे लगता है कि उस विशिष्ट निकुंज में कोई रहस्य छिपा है, जो स्वामी जी की कृपा से ही पता चल पयेगा ! इसी बीच स्वामी जी ने अचानक विट्ठल विपुल जी को बुलाया और बोले जानते हो आज किसका जन्मदिन है विट्ठल विपुल कहा- “नहीं तो” “ठीक है ना जाना ही अच्छा है देखो आज तुम्हारा ही जन्मदिन है” “मैं तुम्हें कुछ सौगात देना चाहता हूं” “मुझे कुछ सौगात नहीं चाहिए मेरी तो केवल एक ही चाहा है उस नित्य नूतन लता निकेतन का रहस्य जानना ! आपके प्राण आराध्य श्यामा कुंज बिहारी के स्वरूप की एक झलक पाना वही तो वही सौगात मैं आज तुम्हें देना चाहता हूं” गुरुदेव बोल-बोलकर विट्ठल जी आनंद से भाव विभोर हो उठे हां तो बुलाओ समाज को जगन्नाथ को भी को समाज जुड़ गया स्वामी जी नेत्र मूंदे बैठे थे ! हाथ तानपुरे पर था ! सब के सब विमुघ्द थ ! वहां ऐसा कोई ना था ! जो रस में ना डूबा हो ! संगीत के स्वरों को के साथ सबने अपने अंतर में एक अद्भुत प्रकाश का अनुभव किया ! तभी उस नूतन निकुंज में भी नील-गौर-प्रकाश कि कोमल किरणें फैलने लगी सब एकटक देख रहे थे ! कुछ दिव्य घटित होने जा रहा था प्रकाश पुंज बढ़ता गया ! बड़ा रोमांचक बड़ा आनंद नहीं ! और तब उसके बीच परस्पर हाथ थामे मुस्कुराते हुए श्यामा कुंज बिहारी के दर्शन हुए स्वामी जी ने गाया “

 

!! माई री सहज जोरी प्रगट भई जु रंग की गौर-स्याम घन-दामिनि जैसे !!
!! प्रथमहू हुती अबहूँ आगै हूँ रहि न टरिहैं तैसें अंग अंग की उजराई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसे !!
!! श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी समवैस वैसें !!

 

प्रिया प्रियतम मुस्कुरा रहे थे ! गीत समाप्त होते ही प्रिया जी बोली - “ललिते !”

स्वामी जी सकपकाए-“भूल हो गई किशोरी जी ! आपका मुग्द्कारी स्वरुप ही ऐसा है !” बिहारी जी कहने लगे “ललिते ! तुम्हारी इच्छा पूरी हो ! अब हम यहां इसी रूप में अवस्थित रहेंगे !

स्वामी जी कुछ विहल होते हुए बोले “प्राणाधार ! आप ऐसे ही….! निकुंज के बाहर आपकी सेवा कैसे होगी !” श्री विष्णु, श्री शिव, श्री इंद्र आदि की

सेवा का तो वैधिक विधान है”

बिहारी जी मुस्कुराए भोले

“सेवा तो लाड प्यार की होगी !”

“समझ गया समझ गया प्रेम–सिन्धु-मराल. “स्वामी जी ने निश्चिंत होकर कहा एक प्रार्थना और है ! अभी-अभी मेरा ध्यान संसार की व्यवहारिकता की ओर चला गया था आप दोनों….. आप दोनों…कैसी बान्कि छवि है ? क्या इस अद्भुत रूप-सौंदर्य को जगत की आंखें झेल पाएंगी ? आप दोनों एक ही रूप हो जाए ! हां ! एक रूप जैसे घन्-दमिनि !”

प्रिया-प्रियतम दोनो मुस्कुरा दिए ! उन्होंने एक दुसरे की तरफ कुछ संकेत किये और दोनों एक-दूसरे में समाहित होकर एक रूप हो गए !!

दामिनी की आभा सजल जलधर के रोम-रोम में रम गई ! वृंदावन की नित्य नवल निकुन्जो में नित्य रमण करने वाले श्यामा कुंज बिहारी की युगल छवि स्वामी जी की प्रार्थना पर ठाकुर श्री बांके बिहारी जी के रूप में प्रतिष्ठित हो गई !!

संतो भक्तों और रसिकों का ह्रदय आनंद से नाचने लगा !! बांके बिहारी लाल की जय के स्वर बारंबार निधि वन की सीमा को लांग कर पूरे चौरासी कोस में गूंजने लगे !! बिहारी जी के दर्शनों के लिए दूर दूर से भक्तजन आने लगे !! विरक्त साधकों को श्री बिहारी जी के रूप सौंदर्य ने आकृष्ट किया !! वृंदावन का शांत परिवेश उन्हें अपनी साधना की दृष्टि से अत्यंत ही अनुकूल लगा !! वृंदावन की कुंज निकुंज में यत्र-तत्र रम गए स्वामी जी और बिहारी जी की महिमा जब हरिदासपुर गांव के निवासियों तक पहुंची तो वे स्वामी आशु धीर जी की अगुवाई में भजन कीर्तन करते हुए निधिवन राज मंदिर में आ गये ! इसमें जगन्नाथ जी की पत्नी और उनके तीनों पुत्र श्री गोपीनाथ जी श्याम जी और मुरारी दास जी भी थे ! उन्होंने स्वामी जी के चरण स्पर्श किए, बिहारी जी के दर्शनों का सौभाग्य पाया और विट्ठल विपुल को देखकर गदगद हो गए स्वस्थ सुंदर सुडौल गोरा शरीर, चमकीली आंखें, मुन्डित सिर, यमुना जी की रज में रंगा अंग-अंग, प्रेम-रस में भीगे चमकीले नेत्र और करुआ, कन्था, कोपीन की रह्नी ! बड़ा मनोहर था वह वेश और वह बाना ! गोपीनाथ जी, मेघश्याम जी, मुरारीदास जी ने तो उन्हें देखकर ही संकल्प कर लिया कि अब हम भी निधिवन वृंदावन को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे और स्वामी जी की अनुमति मिल जाने पर वे तीनों भी अपने भाई विट्ठल विपुल पर माता पिता के साथ स्वामी जी की शरणागत होकर श्री बिहारी जी की सेवा में जुट गए ! एक दिन स्वामी हरिदास जी के लिए यह नितांत सहज था कि वे अपने अव्यक्त निकुंज बिहारी-श्यामाश्याम को रस विलसाने के साथ ही साथ उनके प्रगट स्वरूप श्री बांकेबिहारी जी महाराज को लाड़-लड़ाने की सेवा दूसरे स्थान पर भी व्यक्त हो जाती थी ! किन्तु उनके अतिरिक्त अन्य यह छम्ता किसी में नहीं थी ! इसलिए उन्होंने श्री बिहारी जी महाराज को लाल लड़ाने की सेवा श्री जगन्नाथ जी और उनके तीनों पुत्रों को सौंप दी ! निकुंज बिहारी श्यामा-श्याम की सेवा का दायित्व स्वामी जी ने परम विरक्त हृदय और ब्रह्मचारी श्री विट्ठल विपुल जी को सौंपा ! स्वामी जी की कृपा से श्री विपुल जी का उन्ही के समान सहचरी-स्वरूप हो गया था ! अब वे उन्हीं की तरह प्रिया प्रियतम के संग रह कर उन्हें रस बिलसाते थे, उनसे वार्तालाप करते रहते थे, और उनके अंतरंग में उठती अनंत-तरंगो को नित्य नए रंगों से सजाते हुए उनकी लीलाओं को देखा करते थे और गाया करते थे !

श्री स्वामी जी महाराज ने बिहारी जी की तीन आरतियों का क्रम निर्धारित किया था ! सुबह श्रृंगार आरती, मध्यान में राजभोग आरती, और रात को शयन आरती ! प्रारंभ में स्वामी जगन्नाथ जी ही बिहारी जी महाराज की संपूर्ण सेवा किया करते थे ! पहले बिहरी जी महाराज की सेवा का अनुष्ठान निधिवन में तरु-लता-गुल्मों से निर्मित एक निकुंज-भवन में ही प्रारंभ हुआ था !

सेवा के अवसर पर श्री स्वामी जी स्वयं उपस्थित रहते थे और वे श्यामा जू की गद्दी के पास बैठ कर तानपुरा बजाते हुए राग-रागिनियां सुनाते रहते थे तथा गोस्वामी जगन्नाथ जी भाव के साथ, किंतु सावधानी-पूर्वक श्रीबिहारीजी का श्रृंगार किया करते थे ! सेवा का क्रम ऐसा है कि पहले श्रीकिशोरीजी की गद्दी सेवा होती है ! बिहारीजी महाराज के स्वरूप में समाहित उनके रूप की भावना करते हुए उन्हें वस्त्र धारण कराए जाते हैं, चंद्रिका आदि आभूषणों से उन्हें सुसज्जित किया जाता है बाद में श्री बिहारी जी महाराज का श्रृंगार होता है !

वृंदावन आने के उपरांत गोस्वामी जगन्नाथ ने भी विरक्तो की-सी करुवा-कन्था-कोपीन वाली रीति अंगीकार कर ली थी ! यहां तक कि बिहरी जी की सेवा करते समय भी वह गुदरी ही धारण किया करते थे ! इसी बीच एक अनोखी एवं रोमांचक घटना घटी !

एक दिन स्वामी जगन्नाथ एकाग्र् होकर श्री प्रिया जी का श्रृंगार करने में व्यस्त थे प्रिया जी को वस्त्र धारण कराने के उपरान्त् चन्द्रिका उठाने के लिए जैसे ही नीचे झुके कि प्रिया जी ने प्रकट होकर उनकी गुदरी उतारकर दूर रख दी और अपनी चुन्नी उन्हें उड़ा दी ! गोस्वामी जगन्नाथ जी ने अपने ऊपर चुनरी देखी तो हडबडा गए - यह कैसा अपराध हो गया ? उन्होंने ऊपर नजर घुमाएं तो क्या देखते हैं कि प्रिया जी मुस्कुरा रही है ! उन्होंने अपना हाथ जगन्नाथ के सिर पर रखा कर कहा –“ऐसे ही रहो” और पुनः प्रियतम के स्वरुप में विलीन हो गई ! जगन्नाथ जी ने श्री स्वामी जी की ओर देखा वह भी मुस्कुरा रहे थे बोले “जैसा पियाजी ने कहा है वैसा ही करो” आज से बिहारी जी महाराज की सेवा करते समय तुम गुदरी के स्थान पर यह चुनरी ही पह्नना ! नित्य-विहारिणी की प्रसादी चुनरी पहनने से जो अनुराग हृदय में उत्पन्न होगा वही वस्तुतः उन्हे प्रिय है ! इस प्रसादी चुनरी का एक धागा भी जिस किसी के कंठ का स्पर्श कर लेगा, वह समस्त रोग-शोक संतापों से मुक्त होकर प्रियालाल की सेवा के उपयुक्त बन जाएगा ! जो भक्तजन श्रीबिहारीजी अथवा श्रीकिशोरी जी की प्रसादी वस्त्र को अपने कंठ का श्रृंगार बनाएंगे उनकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी ! और उनका मन निश्चिंत होकर श्री युगल किशोर के चरणों में लगेगा ! अब श्रीबिहरीजी महाराज का श्रृंगार पूरा करके दर्शन खोलो ! ”

स्वामी हरिदास जी की अभिलाषा रहती थी कि सेवा भाव से हो लाड़-प्यार से हो ! उत्तम-उत्तम पदार्थों का उपयोग उनकी सेवा में हो ! सच्चे संतो-भक्तों और रसिकों के मन में भी उनकी कृपा से ऐसी ही प्रेरणा हुआ करती थी ! वे उत्तम उत्तम पदार्थ लेकर बिहारी जी की सेवा के लिए प्रस्तुत करने लगे स्वामी जी स्वयं उस काल के सर्वोत्तम सर्वोत्कृष्ट नित्य सिद्धस्वरूप के रूप में विख्यात थे ! वे बिहरी जी महाराज का उत्तम उत्तम भोग लगाया करते थे और उन्हें मोर (नभचर) बंदर (थलचर) तथा मछली (जलचर) आदि निधिवन और यमुना जी में निवास करने वाले जानवरों को खिला दिया करते थे ! एक दिन एक भक्त बिहारी जी की सेवा के लिए बड़ा अच्छा और कीमती ‘चोआ’ लाया ! उस समय स्वामी जी यमुना पुलिन पर विराजमान थे ! उनके भावलोक में प्रिया-प्रियतम होली खेल रहे थे ! सहसा प्रिया जी की पिचकारी का रंग चुक गया ! स्वामी जी ने बिना आंखे खोले ही आगंतुक भक्त की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा लाओ और ‘चोआ’ की शीशी लेकर सारी सुगंध पुलिन में उड़ेल दी ! भक्त कुछ न समझा ! वह उदास होकर खड़ा रहा ! सोचता रहा कितना कीमती ‘चोआ’ लाया था ! उन्होंने सारा मिट्टी में मिला दिया ! पर रज में गिरने के बाद भी उसकी सुगंध वायुमंडल में क्यों नहीं बिखरी ! क्या ‘चोआ’ ही खराब था…?

भक्त इस प्रकार के अनेक तर्क वितरकों के बीच उलझा ही था ! कि स्वामी जी ने नेत्र खोले ! उन्होंने जगन्नाथ को बुलाकर कहा आगंतुक भक्त को ले जाकर बिहारी जी के दर्शन करा दो !

स्वामी जगन्नाथ ने जैसे ही पट खोला तो ‘चोआ’ की उत्कृष्ट सुरभि को वहां सर्वत्र व्याप्त देख कर वह हैरान रह गया ! दर्शनों के बाद में लौट कर आया और स्वामी जी के चरणों में लिपट कर रोने लगा ! स्वामी जी ने कहा “रोओ मत” प्रसन्न होओ तुम बड़े भाग्यशाली हो जो तुम्हारी सेवा प्रिया प्रियतम ने स्वीकार की है !

इसी प्रकार किसी भक्त को एक पारस मणि मिल गई पारस मणि जिसके स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है वह उसे लेकर स्वामी जी के पास आया और उसे उनके चरणों में रख कर बोला यह पारस है उसमें संपन्नता की अनंत अनंत संभावनाएं छुपी है इसके प्रभाव से बिहारी जी की सेवा का क्रम अच्छे रुप से चलता रहेग ! आप इसे स्वीकार करिए और मुझे अपना शिष्य बना लीजिए ! स्वामी जी उसकी आसक्ति को समझ गए ! उन्हें उस पर दया आई ! और कहने लगे शिष्य तो हम तुम्हे बना लेंगे ! किंतु पहले इस पारस पत्थर को यमुना जी में विसर्जित करके आओ ! भक्त परेशान हो गया तर्क वितर्क का एक अजीब सा बंधन उसके भीतर उत्पन्न हो गया पारस मणि जैसी अमूल्य और दुर्लभ वस्तु को यमुना जी में फेंकने की आज्ञा का और चित्र वह किसी भी प्रकार के निरणय नहीं कर पा रहा था परंतु स्वामी जी का शिष्य पाने कि उसकी लालसा भी जोरों पर था ! अंततः उसे पारस पत्थर को नदी में विसर्जित करके आना पड़ा किंतु उसका मन भर गया ! उसका मन बहुत खिन्नता से भर गया कैसी अद्भुत अमूल्य वस्तु मैंने व्यर्थ गवा दी यह बात उसकी चेतना को ही जलाए जा रही थी ! ऐसी स्थिति में वह श्री हरि की भक्ति का स्पर्श भी कैसे पा सकता था ! स्वामी जी  ने कहा बहुत पछतावा है उस पत्थर का जाओ निकाल लाओ उसे तुमने उसे तो किनारे पर ही गिराया है न ! भक्त् का चेहरा आनंद से खिल उठा वह नदी की ओर भाग लिया ! वहां पहुंचकर जैसे ही जल में हाथ डाला तो वह हैरान रह गया ! वह एक पत्थर डालकर गया था ! वहां वैसे अनंत अनंत पत्थर बिखरे पड़े थे ! उसकी आंखें खुल गई ! वह जैसे ही चलने को मुडा तो उसने देखा कि स्वामी जी वहां खड़े हैं वह बोले इन मणियों में से अपनी मणि पहचान कर ले लो ! भक्त किंकर्तव्यविमूढ़ बना खड़ा रहा ! स्वामी जी ने उसे समझाया मौत की आंधी आने पर धन-संपदा की बात तो दूर यह तुम्हारा शरीर भी तुम्हारा नहीं रहेगा तुम्हारी सच्ची संपत्ति तो श्रीहरि है ! वह जन्म से पहले भी तुम्हारे साथ थे और अब भी तुम्हारे साथ हैं और जब कोई भी तुम्हें अपना कहने को तैयार नहीं होगा तब भी वह तुम्हारे साथ रहेंगे स्वामी जी की कृपा से जो विवेक भक्त के हृदय में उदित हुआ उससे उसके हृदय का सारा मैल धुल गया ! उसका अंतःकरण एकदम निर्मल हो गया ! स्वामी जी ने उसे दीक्षा देकर भजन के मार्ग पर अग्रसर कर दिया !

भक्तमाल के प्रसिद्ध टीकाकार श्रीप्रियादासजी ने उपयुक्त दोनों प्रसंगों का उल्लेख निम्न छन्दो मे किया है - :

स्वमी हरिदास रस रास को बखान सकै, रसिकता छाप सोई जाप मध्य गाइये !!

लायो कोऊ ‘चोवा’, वाको अति मन भोवा वामें, डारयो लै पुलिन , येह खोवा, हिये आइये !!

जानि कै सुजान कहीं, लै दिखवो लाल प्यारी, नैसुक उधारे पट सुघन्ध उडायइये !!

पारस पाषान करि जल डरवाइ दियौ, कियौ जब सिष्य, ऎसे नाना विधि गाइये !!

वस्तुतः श्री स्वामी जी के साथ ऐसे अनेक नाना विधि प्रसन्ग जुड़े हुए हैं जिन्हें रसिक भक्त कवि रीझ्-रीझ् कर गाते है ! स्वामी जी की श्यामा कुंज बिहारी की रस विलासमयी लीलाओं का मुख्य वाहक है-संगीत !

स्वामी जी के अद्भुत संगीत की गति पर यह विलास-रस थिरकता है, क्रिडा कर्ता है !

“श्री हरिदास के स्वामी स्यामा कुन्जबिहारी संगीत संगी है !”

प्रिया प्रियतम रुचि के प्रकाश हैं उन्हें रस-विल्सन से अलौकिक राग रागिनियां उत्पन्न होती रहती हैं ! दरअसल नित्य बिहार का मुख्य आधार ही संगीत है ! ललितावतार स्वामी श्री हरिदास जी निकुंज लीला में “हरिदासी” अथवा “ललिता” है जो संगीत की अधिष्ठात्री है ! उनका संगीत अपने आराध्य की उपासना के लिए था, ना कि किसी राजा-महाराजा के लिए राजा राजे महाराजे तो स्वामी जी के दर्शनों की चाह लेकर उनके द्वार पर खड़े रहते थे ! हरिदास जी राजाओं, शाहों से ऊपर थे !

लोक में ‘बैजू बावरा’ और तानसेन जैसे विख्यात संगीतज्ञ स्वामी जी के शिष्य माने जाते हैं ! तानसेन बादशाह अकबर के नवरत्नों में संगीतज्ञों का प्रतिनिधित्व करते थे ! एक दिन बादशाह अकबर ने तानसेन के गायन पर कहा तानसेन तुम्हारे जैसा संगीतज्ञ आज तक इस दुनिया में कोई दूसरा नहीं है ! तानसेन ने कान पकड़ लिए बोले खुदा के लिए ऐसा मत कहिए मेरे गुरु स्वामी हरिदास जी संगीत के महासागर है उनके सामने मेरी औकात तो एक बूंद के समान भी नहीं है ! बादशाह ने कहा एक दिन उन्हें हमारे दरबार में आने की दावत दो ! हम उनका संगीत सुनना चाहते हैं तानसेन ने समझाया कि वह वृंदावन को छोड़कर कहीं नहीं जाते हैं ! अकबर हम वही जाकर उनका दीदार करेंगे और संगीत सुनेंगे ! तानसेन ने बोला बादशाही तामझाम के साथ वहां पर प्रवेश करना असंभव है ! फकीर अपनी मौज का शंह्शाह होता है ! उसे किसी भी ताकत से कोई भी काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता ! “तो फिर” अकबर ने निराश होते हुए कहा ! तानसेन ने कहा एक उपाय है आप खवास के रूप में तानपुरा उठाकर चले तो शायद सफलता मिल जाए !! बादशाह राजी हो गए !! निधिवन निकुंज के द्वार पर बादशाह सलामत को खड़ा करके तानसेन ने स्वामी जी के पास पहुंचकर उनको प्रणाम किया !! स्वामी जी तानसेन की सारी लीला पहले ही समझ गए थे !! उन्होंने बादशाह को अंदर आने की अनुमति दी !! मौके से उन्हें स्वामी जी के संगीत को सुनने का मौका भी मिला ! उसे सुनकर बादशाह कृतकृत्य हो गए ! उन्होंने कहा स्वामी जी कुछ सेवा बताइए स्वामी जी हसे और बोले सेवा करोगे ! बादशाह ने प्रसन्न होते हुए कहा जरूर करूंगा ! खुशी के साथ करूंगा ! स्वामी जी ने अपने एक शिष्य को बुलाया और बोले इन्हें बिहार घाट कि वह सीढ़ी दिखा दो जिस का एक कोना क्षतिग्रस्त हो गया है ! ताकि यह उसकी मरम्मत करवा दें ! स्वामी जी ने कृपा करके अकबर को कुछ पल के लिए वह दिव्य दृष्टि भी दे दी जिससे वृंदावन के नित्य स्वरूप को निहारने का सौभाग्य किसी-किसी सिद्धि रसिक संत को ही मिलता है ! बिहार घाट पर जाकर अकबर ने देखा तो चकित रह गया सर्वत्र रंगबिरंगा प्रकाश विकिरण करने वाला विविध प्रकार के हीरे जवाहरात मणि माणिक्य जड़े हुए थे ! उनके ऊपर से नीचे तक घाट के दर्शन किए तो उनकी दृष्टि सीढ़ी के टूटे हुए कोने पर भी पड़ी वहां जो रतन जड़े हुए थे ! वाह का एक भी रतन अकबर के खजाने में ना था ! वह स्वामी जी के पास आ गए ! और उनके चरणों में गिर कर क्षमा याचना की !

इतिहासकार विंसेंट स्मिथ ने अपने ग्रंथ “अकबर द ग्रेट मुगल” मैं एक टिप्पणी में अकबर के निधिवन में आने और एक दिव्य दृष्टि से वृंदावन को देखने का उल्लेख किया है” जिस दृश्य को वह स्वपन मे देखता था और देखते-देखते उठ कर बैठ जाता था !

इन सब के बाद एक बार फिर श्री बांके बिहारी जी महाराज के सेवाक्रम पर आते हैं ! गोस्वामी जगन्नाथ जी के पुत्रों में से श्री गोपीनाथ जी श्रृंगार सेवा के, श्रीमेघश्याम जी राजभोग-सेवा के, और श्री मुरारीदास जी शयनभोग सेवा के अधिकारी थे ! इसमें राजभोग-सेवा अधिकारी श्री श्रीमेघश्याम जी के चार पुत्रों में से दूसरे पुत्र श्री बिहारीदास जी थे ! इन्होंने श्री हरिदास जी स्वामी की कृपा से स्वामी जी से दीक्षा लेकर आजन्म करुवा-कोपिन की रेह्नी-रिति स्वीकार करके श्री स्वामी हरिदास और बिहारी-बिहारी की प्रशस्ति के गीत गाए !

स्वामी बिहारीनदास जी सतत स्वामी हरिदास जी के साथ रहते थे ! उन्होंने स्वामी जी के, प्रियालाल की लीलाओं में नित्य उपस्थित स्वरूप को उजागर किया, उनकी व्याख्या की ! और साथ ही साथ निकुन्जबिहारी-श्यामा-श्याम की   रेह्:केलियों के बड़े रसीले-रंगीले भाव चित्र प्रस्तुत किए ! उनकी प्रश्ति में भक्तमालकार ने उनहे अमृत बाट्ने वाला बताया है – “दासबिहारिन अमृतदा !”

स्वामी हरिदास जी की विरक्त शिष्य परंपरा में इन्हें गुरुदेव के नाम से स्मरण किया जाता है ! और इन्हें ही अपनी परंपरा का प्राथमिक आचार्य माना जाता है !

श्री गोपीनाथ जी का वंश दो पीढ़ी के बाद उच्छिन्न हो गया और श्रृंगार-सेवा का अधिकार भी गोस्वामी मेघश्याम जी और गोस्वामी मुरारीदास जी के वंशजों पर आ गया ! क्रम अनुसार एक्-एक वर्ष तक दोनों के वन्शज श्रृंगार सेवा का दायित्व संभालने लगे ! सेवा का यही क्रम आज भी चालू है गोस्वामी समाज में अनेक सिद्ध पुरुष हुए हैं ! विभिन्न कवियों द्वारा उनकी प्रशिस्तियां समय-समय पर गाई गई है ! इस संबंध में गोपाल कवि की एक रचना देखिये –

 

स्वमी जू के वंश में अनेक अवतार भये, आज तोलौ हैं ही और होहिंगे धरन तें !

कह्त “गुपाल” भगवत अवतारन तें, भरयौ भयौ है वंस सर्वोपरि नरन तें !!

नाना परिवार दिव्य इनके चरित्र सब, कहत सुनत अव्लोकन करन तें !!

जेते-जेते जग-जन ब्रज अभिलाषी बहु, कृतार्थ भये है ते इन्हीं की सरन तें !!

-वृन्दावन धामनुरागाविल

 

प्राकट्य के बाद कई वर्षों तक श्री बिहारी जी महाराज का सेवा क्र्म निधिवन में हीं चलता रहा ! आवश्यकता के अनसार उन्हें 1826 के बाद यहां स्थानांतरित कर दिया गया जहां विराजमान है ! उस समय यहां एक छोटा सा मंदिर बनाया गया ! और उसी में सेवा क्रम् चालू किया गया ! धीरे-धीरे एक भव्य विशाल मंदिर की आवश्यकता संपूर्ण गोस्वामी समाज को अनुभव होने लगी ! इसके लिए अपने शिष्यो से मिलने वाले धन का संग्रह कर ! कई वर्षों बाद धन इकट्ठा हो जाने के बाद मंदिर निर्माण का कार्य आरंभ हुआ ! इसके बनाने में सम्पूर्ण गोस्वमी ने तन्-मन्-धन से सहयोग किया ! कह्ते है कि मन्दिर का नक्शा और मन्दिर में सर्वत्र उकेरी गयी लता गुल्मों की डिजायन भी गोस्वमी समाज ने ही तैयार की थी ! वर्तमान मन्दिर संवत 1921 और सन् 1864 में बनकर तैयार हुआ ! उस समय इसके निर्माण की लागत 70000 आई थी !

मथुरा का तत्कालीन जिलाधिकारी एफ. एस. ग्राउस् नाम   का एक अन्ग्रेज था ! उसने अपने समय की महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण इस प्रकार दिया गया है – “यह मंदिर अभी 70000 रु. की लागत से बनकर तैयार हुआ ! इस धन को गोस्वामी भाइयों ने अपने शिष्यों से भेंट के रूप में 13 वर्षों में इकट्ठा किया है ! मंदिर चौकोर है ! शिल्पकला की दृष्टि से यह वृंदावन की अन्य आधुनिक मंदिरों से अधिक सुंदर है ! बिहारी जी को उत्सव बहुत प्रिय है ! यहां नित्य उत्सव नित्य मंगल का क्रम चलता ही रहता है !

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